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आ रु॒क्मैरा यु॒धा नर॑ ऋ॒ष्वा ऋ॒ष्टीर॑सृक्षत। अन्वे॑नाँ॒ अह॑ वि॒द्युतो॑ म॒रुतो॒ जज्झ॑तीरिव भा॒नुर॑र्त॒ त्मना॑ दि॒वः ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā rukmair ā yudhā nara ṛṣvā ṛṣṭīr asṛkṣata | anv enām̐ aha vidyuto maruto jajjhatīr iva bhānur arta tmanā divaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। रु॒क्मैः। आ। यु॒धा। नरः॑। ऋ॒ष्वाः। ऋ॒ष्टीः। अ॒सृ॒क्ष॒त॒। अनु॑। ए॒ना॒न्। अह॑। वि॒ऽद्युतः॑। म॒रुतः॑। जज्झ॑तीःऽइव। भानुः। अ॒र्त॒। त्मना॑। दि॒वः ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:52» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे (ऋष्वाः) बड़े (नरः) अग्रणी जन (युधा) युद्ध से (ऋष्टीः) प्राप्त हुए सेनाओं के जन (आ, अनु, असृक्षत) सब प्रकार अनुकूल उत्पन्न करें और (एनान्) इनको (अह) ग्रहण करने में (जज्झतीरिव) शब्द करने वा शीघ्र चलनेवालियों के सदृश (विद्युतः) बिजुली और (मरुतः) पवन की (दिवः) कामना करते हुए जन और (भानुः) दीप्ति (त्मना) आत्मा से जानने योग्य हैं, उनको आप (रुक्मैः) रोचमान प्रदीप्तों से (आ) सब प्रकार (अर्त्त) प्राप्त हूजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जन मनुष्यों के लिये बिजुली आदि विद्याओं को प्राप्त करावें ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसः ! यथा ऋष्वा नरो युधर्ष्टीरान्वसृक्षत। एनानह जज्झतीरिव विद्युतो मरुतो दिवो भानुस्त्मना ज्ञातुं योग्याः सन्ति तान् यूयं रुक्मैराऽऽर्त्त ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (रुक्मैः) रोचमानैः प्रदीप्तैः (आ) (युधा) युद्धेन (नरः) नायकाः (ऋष्वाः) महान्तः (ऋष्टीः) प्राप्ताः सेनाजनाः (असृक्षत) सृजन्तु (अनु) (एनान्) (अह) विनिग्रहे (विद्युतः) (मरुतः) वायो (जज्झतीरिव) शब्दकारिण्यः शीघ्रगतयो वा ता इव (भानुः) दीप्तिः (अर्त्त) प्राप्नुत (त्मना) आत्मना (दिवः) कामयमानाः ॥६॥
भावार्थभाषाः - विद्वांसो मनुष्यान् विद्युदादिविद्याः प्रापयन्तु ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान लोकांनी माणसांना विद्युत इत्यादी विद्या प्राप्त करवावी. ॥ ६ ॥